संजय लीला भंसाली की डेब्यू वेब सीरीज ‘हीरामंडी’ नेटफ्लिक्स पर रिलीज हो गई है। 1940 के दशक में सेट इस पीरियड ड्रामा के फर्स्ट लुक से ही संभाली की सिग्नेचर डिटेलिंग, एक्ट्रेस के खूबसूरत व आउटफिट, ग्रैंड सेट और गहने सब दर्शकों को अपनी तरफ लुभा रहे हैं।
संजय लीला भंसाली के बारे में कहा जाता है कि वह जो जादू का संसार बनाते हैं। जो केवल विजिबल या खूबसूरत ही नही होता बल्कि इसमें बहुत बड़ा रोल साउंड का भी होता है, विशेष करके गानों का।
हम लोग फिल्ममेकर संजय भंसाली के बारे में तो चर्चा करते हैं। लेकिन एक म्यूजिक डायरेक्टर के रूप में संजय भंसाली काफी बेहतरीन काम कर रहे हैं। उन्होंने 2010 में आई अपनी फिल्म ‘गुजारिश’ में बतौर म्यूजिक डायरेक्टर डेब्यू किया था। लेकिन इसके पहले उनकी फिल्मों के गाने और उनके म्यूजिक में भंसाली की समझ आप देख सकते हैं।
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गुजारिश फिल्म के बाद ही संजय लीला भंसाली ने अपनी डायरेक्ट की गई लगभग हर फिल्म का म्यूजिक खुद कंपोज किया है। जैसे रामलीला, बाजीराव मस्तानी, पद्मावत, गंगूबाई काठियावाड़ी के गाने काफी लोक प्रिय हुए हैं। अब नेटफ्लिक्स पर रिलीज वेब सीरीज ‘हीरामंडी’ में भी संजय लीला भंसाली का म्यूजिक कंपोजर के रूप में कमल दिख रहा है।
हीरामंडी का एल्बम आपको लगभग सभी ऑडियो प्लेटफॉर्म पर मिल जाएगा। इसके गाने बेहद खूबसूरत है। लेकिन इसका एक गाना हिंदुस्तानी क्लासिकल म्यूजिक का विरासत है और उसे नए अंदाज में गया गया है, जिससे यह गाना बहुत ही खास बन गया है। इसका सबसे पुराना रिकॉर्ड जिस गायक की आवाज में है उनकी अपनी कहानी हीरामंडी की थीम के करीब है।
हीरामंडी में है 100 साल पुराना गाना
संजय लीला भंसाली की वेब सीरीज हीरामंडी का एक गाना है ‘फूल गेंदवा न मारो’ इस गाने को संजय लीला भंसाली ने म्यूजिक दिया है और प्रणाली ठाकुर ने बड़ी खूबसूरत अंदाज में इसे गया है। इन दिनों सोशल मीडिया पर इस गाने की खूब चर्चा हो रही है।
यह गाना 1964 में आई अशोक कुमार और राजकुमार की फिल्म ‘चौदहवीं का चांद’ के एक गाने का रीमिक्स है जिसे आरडी बर्मन ने कंपोज किया था और उसका टाइटल भी फूल गेंदवा न मारो था। इसके पहले इसी टाइटल का एक गाना 1956 में देवानंद की फिल्म फंटूश में भी देखने को मिला था।
दरअसल फूल गेंदवा न मारो हिंदुस्तानी क्लासिकल म्यूजिक की एक पारंपरिक रचना है। यह राग भैरवी में एक आईकॉनिक ठुमरी जीत है और इसका सबसे पुराना मौजूदा रिकॉर्डिंग 1935 का है जिसे रसूलन भाई ने गया था। संजय लीला भंसाली की वेब सीरीज हीरामंडी में यह गाना रिचा चड्ढा पर फिल्माया गया है।
रसूलन बाई
रसूलन बाई ने इस गाने से पहले भी कई ठुमरी गाने गए थे। इस तरह से यह रचना लगभग 100 साल पुरानी है। रसूलन बाई द्वारा गया गया यह ठुमरी गीत हिंदुस्तानी क्लासिकल म्यूजिक में जो लोग दिलचस्पी रखते हैं उनके लिए एक ऐसा मुकाम है जिसे कोई अन्य गायक छू भी नहीं सकता है।
रसूलन बाई की आवाज, उनकी गायकी और गाने का अंदाज इस गीत को और भी खूबसूरत बना दिया। लेकिन हमें से बहुत ही कम लोगों को रसूल भाई की कहानी पता है। दरअसल उनकी जिंदगी संजय लीला भंसाली के हीरा मंडी के थीम के से बहुत जुड़ा हुआ है।
रसूलन बाई की कहानी
रसूलन बाई बनारस घराने से आती है। पांच दशक तक उन्होंने हिंदुस्तानी क्लासिकल म्यूजिक में अपना नाम कमाया। रसुलन बाई कई तरह की गायकी करती थी लेकिन ठुमरी की वह उस्ताद बताई जाती हैं। गायकी उन्हें अपनी मां से विरासत में मिली थी। वह ठुमरी, कजरी, पूर्वी गीत, चैती जैसे पारंपरिक गानों को गाने में माहिर थी।
5 साल की उम्र में ही रसूलन बाई ने क्लासिकल रागों पर अपना हाथ जमा लिया था। उस्ताद समूह खान से उन्होंने संगीत की शिक्षा ली। रसूलन बाई मुजरे की विरासत से आती है। बता दे की पापुलर कल्चर में इसे कोठा यानी सेक्स वर्कर से जोड़कर देखा जाने लगा। वही हिंदुस्तानी क्लासिक म्यूजिक को सहेज कर रखने में काफी महत्वपूर्ण रोल निभाया है।
एक रिपोर्ट के अनुसार इतिहासकार कैथरीन बटलर ब्राउन ने बताया तवायफ शब्द का इस्तेमाल पहली बार दरगाह कुली के मुरक्का-ए-देहली में हुआ था। उसे समय इस शब्द का इस्तेमाल गायिकाओं और नर्तकियों की कम्युनिटी के लिए किया गया था। नवाबों और राजाओं के दर में समय में तवायफ कल और शिष्टाचार का स्कूल हुआ करती थी। लेकिन जब से भारत में ब्रिटिश क्राउन लागू हुआ उन्हें अपराधियों की तरह समझा जाने लगा। इसी के बाद से उनका स्तर गिरना शुरू हो गया।
नतीजा यह रहा कि मुजरा से जुड़े संगीतकार और गायक देश की आजादी में अपना योगदान देने लगे। खुद रसोलन बाई भी 1948 में कोठा छोड़कर बनारस की गलियों में रहने लगी और बनारसी साड़ी के एक डीलर से शादी कर ली।
उन दिनों वह लखनऊ इलाहाबाद के ऑल इंडिया रेडियो स्टेशन पर गाने गाती थी।।यही से उनकी आवाज ग्रामोफोन पर लोगों के घर-घर घूमने लगी। वह कुछ साल सूरत में भी रही और 1969 के गुजरात के दंगों में उनका घर जला दिया गया। इसके बाद वहां इलाहाबाद वापस आ गई। जिन रेडियो स्टेशन पर कभी वह गायकी करती थी उसके बाहर वह चाय की दुकान लगाने लगी। उनकी जिंदगी गरीबी में गुजरी 15 दिसंबर 1974 को उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली।
संजय लीला भंसाली की यह वेब सीरीज आजादी से पहले लाहौर की तवायफों की जिंदगी पर आधारित है।